6 अग॰ 2015

सदियों की ख़ता, लम्हों को सज़ा-9

(पिछला भाग)

स्त्रियां आज़ाद हो रहीं हैं, होंगी।

मगर उसके लिए न सिर्फ़ उन्हें अपनी पारंपरिक भूमिका को छोड़ना होगा बल्कि पुरुष को भी उसकी पारंपरिक भूमिका से मुक्त करके देखना होगा, जो कि अभी तक कम ही होता दिखाई दिया है।

कितनी स्त्रियां हैं जो अपने पतियों, भाईयों, पिताओं से भारी सामान उठाने की उम्मीद न करतीं हों ?

यूं कोई भी कमज़ोर, थका, बीमार व्यक्ति किसीसे भी मदद मांग सकता है, इंसानियत के नाते कोई भी किसीकी सहायता कर सकता है, मगर किसी लैंगिक भेदभाव या पारंपरिक रिश्तों के आधार पर स्त्री या पुरुष की भूमिकाएं फ़िक्स कर देना समानता नहीं हो सकती।

कितनी स्त्रियां हैं जो पुरुष द्वारा कार का दरवाज़ा खोले जाने और फ़िल्मी अंदाज़ में ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ का उच्चारण सुन कर या सुनने के इस ख़्याल पर ख़ुश न होतीं हों। ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ कभी भी समानता का उद्घोष नहीं हो सकता। इसके दो-तीन ही मतलब समझ में आते हैं, एक-स्त्रियों का वर्चस्व, दो-स्त्रियों की ख़ुशामद और तीन स्त्रियों की निरीहता। उक्त में से किसी में भी समानता जैसी कोई बात नज़र नहीं आती।

कितनी स्त्रियां हैं जो ‘मैं तो हर स्त्री का सम्मान करता हूं’ जैसे जुमले सुनकर ख़ुश न होतीं हों ? उसे याद आता है जब वह बहुत छोटा, अबोध और कमज़ोर-सा बच्चा था कि एक दिन किसी खेल के दौरान एक दादा टाइप लड़के ने बेकार की कोई तीन-पांच निकाली और उसे दो-तीन झापड़ रसीद कर दिए। वह अभी इन झापड़ों का रहस्य समझने की कोशिश ही कर रहा था कि दादा ने सामने किसी दरवाज़े पर खड़ी किसी लड़की का वास्ता देते हुए कहा कि ‘फ़लां’ की ‘इज़्ज़त’ करता हूं, इसलिए तुझे छोड़ रहा हूं वरना.......

बाद में उसे स्त्रियों के इस ‘आदर’ का रहस्य समझ में आया और उसके भी बाद उसने इस आदर के कई-कई रुप देखे। अब तो वह भली-भांति जानता है कि स्त्रियों का ‘आदर’ करनेवालों में भी बड़ी ‘वैराइटी’ है, इनमें लड़की पटानेवालों से लेकर भीड़ पटानेवाले यानि लोकप्रियतावादियों तक सब तरह की क़िस्में पाई जातीं हैं।

वैसे भी बिना किसी वजह का आदर पाकर कोई भी ढंग का आदमी कैसे ख़ुश हो सकता है!?

कितनी स्त्रियां है जो लड़का न ढूंढने, अपनी शादी न हो पाने या शादी के बाद ससुरालियों की अच्छी देखभाल, रखरखाव(संबंधों की मेंटीनेंस) न हो पाने का दोष अपने भाईयों को न देतीं हों ?

लड़कियों की शादी न हो पाने का दोष माता-पिता को दिया जाए यहां तक बात समझ में आती है क्योंकि माता-पिता ने अपने होशो-हवास में बच्चों को पैदा किया होता है और वे जानते रहे होते हैं कि इस समाज में लड़कियों की शादी किस तरह से होती है। मगर भाई-बहिन पर परस्पर इस तरह की कोई भूमिकाएं आरोपित करना लगभग शर्मनाक़ ही माना जाना चाहिए। ख़ासकर तब तो और भी जब ये लोग ख़ुदको प्रगतिवादी और समानतावादी मानते हों। भाई-बहिन एक ही घर में संयोग से पैदा होते हैं। किसी बहिन पर भाई की देखभाल की ज़िम्मेदारी डालना या किसी भाई पर बहिन की शादी वगैरह की ज़िम्मेदारी डालना समान रुप से अतार्किक और अनैतिक है। इंसानियत के नाते कोई किसीके लिए अपनी जान भी दे सकता है मगर स्त्री या पुरुष के नाते, एक तयशुदा पारिवारिक ढांचे के तले, इस तरह के रोल फ़िक्स करना कहीं से भी समानता में नहीं आता। और स्त्री के विवाह की कोशिशों, विवाह के दौरान और बाद में हमारे समाज में जिन गंदे, अमानवीय, भेदभावयुक्त और कई बार अश्लील रीति-रिवाज़ों, मानसिकताओं और व्यवहार से गुज़रना पड़ता है उसे जानते हुए भी कोई प्रगतिशील(!) व्यक्ति इसे महानता, सामाजिकता, ज़िम्मेदारी, उपलब्धि वग़ैरह मान सकता है, सोचकर भी हैरानी होती है!!

कितनी स्त्रियां हैं जो पुरुष से, यूंही, ख़ामख़्वाह, आर्थिक मदद, वाहन में लिफ़्ट आदि की उम्मीद नहीं रखतीं ?

ऐसे बहुत-से सवाल हैं।

समानता के लिए एक सुझाव समझ में आता है-

जब कोई स्त्री और पुरुष, किसी समझौते, किसी व्यवस्था जैसे विवाह, लिव-इन या अन्य कोई जीवन-शैली, के तहत साथ-साथ रहना चाहें तो दोनों के परिवार वाले उन्हें एक तीसरी जगह बसाकर दें, दोनों ही उसमें बराबर या अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार सहयोग करें, दोनों अपनी-अपनी प्रॉपर्टी से हिस्सा दें। या लड़कियां अभी भी पुरुष के साथ उसके घर जानेवाली व्यवस्था से ख़ुश हैं तो वह तो जारी है ही। कोई पुरुष भी अगर स्त्री के साथ जाकर उसके परिवार के साथ रहना चाहे तो उसे भी हिक़ारत की नज़र से क्यों देखना चाहिए !?

समानता तो समानता है।

06-08-2015
(जारी)

(अगला भाग)


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