4 अप्रैल 2015

सदियों की ख़ता और लम्हों को सज़ा-4


हे देश के पवित्र महात्मागणों, फूफा-फूफिओं, दादा-दादिओं, नाना-नानिओं, जीजा-जीजिओं, पिताओं-माताओं, तुम जो ये झंडे ले-लेके एकाएक क्रांतिकारी हो उठे हो, ये न सोच बैठना कि जो लोग बलात्कार नहीं करते वे बहुत महान हैं। उन्हींमें से बहुत-सारे लोग सरिता-मुक्ता-मेट्रो नाऊ के कॉलमों में घुसे बैठे हैं। उनके अलावा बहुत-सारे तुम्हारे वे पारंपरिक पुत्र हैं जो लड़की पटाने का पारंपरिक हुनर और ‘धैर्य’ रखते हैं। जो ‘प्यार और युद्ध में सब जायज़ है’ नामक भजन पर पूरी श्रद्धा रखते हैं, किसी राम की मर्यादा की बात भी करते हैं और साथ-साथ किसी कृष्ण के नुस्ख़े भी आज़माते रहते हैं। व्यक्तित्व के इसी विघटन/दोमुंहेपन को सीज़ोफ्रीनिया कहा जाता है। दूसरों को कुछ समझाने से पहले ख़ुद ठीक से समझ लो कि हर कोई इतना पाखंड एक साथ नहीं साध सकता। तुम कितने भी अच्छे नाम इन्हें दो पर दरअसल ये बेईमानों के हुनर हैं। तुमने तो खिड़कियों-रोशनदानों के ज़रिए अपना काम निकाल लिया पर जो तुम्हारी तरह पाखंडी, बेईमान और सीज़ोफ्रीनिक नहीं हैं वो क्या करेंगे ? 
तुम क्या करते रहे वो तुम ज़रा इस गीत में देखो। ‘भारत की बेटियां’ में आज का कथित सबसे बड़ा अपराधी जो कह रहा है, यह गीत उससे कितना अलग है? तुम्हारी फ़िल्में, तुम्हारी कहानियां, तुम्हारे उपन्यास ऐसी मानसिकता से भरे पड़े हैं। ऊपर से अब यही लोग उपदेश भी बांच रहे हैं।


याद करो वे चुटकुले जो रिश्तों की मर्यादा, पवित्रता की बात करनेवाले दोस्त और सहेलियां अकेले में मज़े ले-लेकर सुनाते थे कि किस तरह एक आदमी कहीं से एक छूत की बीमारी लेकर लौटा और कैसे वो बीमारी कुछ ही दिन में सारे परिवार में फैल गई। अंदर जिस चीज़ में तुम रस लेते रहे, बाहर उसीके खि़लाफ़ नारे लगाने लगे? इसीको सीज़ोफ्रीनिया कहते हैं महामनाओं। ज़रा ध्यान से देख लो, तुम्हारे आस-पास क्रांति की तख़्तियां लिए खड़े लोग वही चुटकुले सुनाकर तो नहीं निकले।

आज तुम्हे, पुलिस और क़ानून की बड़ी याद आ रही है कि पुलिस और क़ानून कुछ नहीं करते, नेता कुछ नहीं करते। मगर तुम्हे यह याद नहीं आ रहा कि तुम्हारे बच्चे पुलिस ने नहीं पाले। ख़ुद पुलिसवाले तुम्हारे ही जैसे किन्हीं घरों में पले हैं। और तुम्हे दहेज़ लेते-देते वक़्त तो क़ानून याद नहीं आता ? तुम्हे गली और सड़क पर दूसरों के रास्ते में कमरे बनाते और दुकान बढ़ाते वक़्त तो क़ानून याद नहीं आता ? तुम्हे सड़क पर गड्ढे खोदकर तम्बू तानते समय तो क़ानून याद नहीं आता ? न तुम्हे टैक्स मारते में क़ानून की याद आती है! न तुम्हे टीए डीए के नक़ली बिल बनाते हुए क़ानून याद आता है! क्या तुम्हारे अख़बारों में रचना छापने को लेकर कोई स्पष्ट नियम-क़ानून हैं ? तुम्हारा कौन-सा चैनल है जो अख़बार में विज्ञापन निकालता हो कि हमें फ़लां-फ़लां विषयों पर डिबेट के लिए फ़लां-फ़लां योग्यता वाले डिबेटर चाहिएं? सबने ख़ुद धक्कमपेल चला रखी है और दूसरों को ईमानदारी सिखा रहे हैं!?

ख़ुद कोई क़ानून मानेंगे नहीं और अपने लिए बिलकुल ठीक-ठीक न्याय चाहिए!? क्यों चाहिए !? तुमने क़ानून का पालन करनेवालों का कितनी बार साथ दिया जो अब दूसरों से शिक़ायत कर रहे हो कि दूसरे साथ नहीं देते ? तुम्हे याद है कि क़ानून का पालन करनेवालों की तुम क्या-क्या कहकर हंसी उड़ाते रहे-भोंदू, अव्यवहारिक, फ़ालतू, पागल, निठल्ला, सनकी!

अब ख़ुद यही सब बनना चाहते हो!?

(जारी)

04-04-2015


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