26 अग॰ 2013

बीच घर में एक निर्जन टापू


चौखट के बिलकुल ऊपरी कोने में, दीवार के सहारे एक झिरी है जिससे अपनी बायीं आंख किसी तरह सटाकर वह दुनिया को देखता है। बना-बनाया मकान ख़रीदा है पिताजी ने, नया ही है मगर चौखटों में दीमक लग गई है। सरल धीमे से एक कुर्सी घसीटकर झिरी के नीचे लाता है, सावधानी से उसपर चढ़ता है और सांस रोक कर बाहर का दृश्य देखता है। उसके अहंकार को यह मंज़ूर नहीं कि कोई उसे देखता हुआ देखे। झिरी से घरके बाहरवाले आंगन का एक हिस्सा दिखाई देता है। आंगन के बराबर वह गली है जो घर के पीछेवाली मिल तक जाती है। मोहल्ले के बच्चे कभी-कभी खेलते हुए उनके आंगन तक आ जाते हैं, या गली से गुज़रते हुए मिल में जाते हैं। वही देखना चाहता है सरल। देखते हुए उसे कुर्सी पर शरीर का संतुलन भी बनाए रखना होता है और यह भी ध्यान रखना होता है कि कमरे की ओर आती किसी पदचाप को सुनते ही कुर्सी से उतरकर उसे वापस अपनी जगह टिका देना है। उसके लिए यह दूसरे बच्चों की तुलना में ज़रा मुश्क़िल काम है। चढ़ते और उतरते वक्त उसका शरीर इतने ज़ोर से कांपता है कि लगता है कुर्सी समेत उलट जाएगा। हांलांकि देखने में ख़ुशी कुछ नहीं मिलती उसे, तक़लीफ़ ही होती है कि दूसरी बच्चे किस उन्मुक्त भाव से खेल रहे हैं, और वह यहां इस कमरे में बंद है।

सरल ने ख़ुद ही बंद कर लिया है अपने-आपको। घरके अंदरवाले आंगन में भी थोड़ी धूप आती है, मगर वह वहां भी नहीं जाता। दूसरे घरों की छतें आंगन से लगीं हैं। वह डरता है कि अगर वे बच्चे अपनी छतों पर आ गए और उसे देख लिया तो उसपर हंसेंगे, चिढ़ाएंगे कि ‘देख, गांडू यहां छुपा बैठा है।’

घरके लोग परेशान हैं ; पिताजी सबसे ज़्यादा परेशान हैं कि आखि़र इसे हुआ क्या है? वे डांटते हैं, झिड़कते हैं, कभी-कभी प्यार से भी पूछते हैं कि क्या हुआ, क्यों नहीं घरसे निकलता। पिताजी के सामने पहले भी बोलना आसान नहीं था, दिन-प-दिन और मुश्क़िल होता जा रहा है। कभी-कभी पिताजी उन लोगों को भी ले आते हैं जो उन्हें अपने लगते हैं, समझदार और दुनियादार लगते हैं। वे लोग अपनी तरह से सरल को समझाते हैं। एक पूछता है, ‘क्या हुआ, किसीने चाकू-वाकू दिखा दिया क्या?’ दूसरा सरल को ज़बरदस्ती घर से बाहर ले जाने की कोशिश करता है।  सरल कभी खाट को तो कभी दरवाज़े को इतना कसके पकड़ लेता है कि उसे बाहर निकालना लगभग असंभव हो गया है। अंततः सब यही जानना चाहते हैं कि आखि़र एकाएक ऐसा क्या हुआ कि इसने ख़ुदको कमरे में बंद कर लिया।

सरल क्या बताए ? उसे ख़ुद कुछ ठीक से समझ में आए तो बताए भी। उसे नहीं पता कि क्या हुआ है। मगर यह ज़रुर पता है कि कुछ हुआ है, कुछ होता रहता है जो उसे लगातार परेशानी में डाले रखता है। लेकिन वह ठीक से बता पाने में असमर्थ है। बहुत बार उसे भी लगने लगता है कि वह ख़ामख़्वाह बहाना बना रहा है।

और फ़िर वही अपराधबोध जिसने शायद सरल के होश संभालने से पहले ही उसे जकड़ लिया है।

26-08-2013

(जारी)


2 टिप्‍पणियां:

रुके-रुके से क़दम....रुक के बार-बार चले...