26 दिस॰ 2011

क्यों है ज़रुरी, ग़ज़ल हो पूरी !


पड़े रहते हैं कई शेर कि कभी सुधारेंगे, कि कभी करेंगे ग़ज़ल पूरी। कभी हो जातीं हैं तो कभी रह जातीं हैं, होने को। फिर कभी लगता है कि एक-एक अकेला ही दमदार है तो उतार क्यों नहीं देते मैदान में! संकोच भी होता है इस तरह सोचते मगर क्या करें कि जो सोचा उसे कैसे झुठला दें, क्यों सेंसर कर दें!? तो लीजिए फिर....



हथेली पर कोई गर जान रक्खे
तो मुमकिन है कभी ईमान रक्खे 13-11-2010
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पहले रस्ता रोकेंगे फिर राह बनाना सिखलाएंगे
जीते-जी मारेंगे तुझको और फिर जीना सिखलाएंगे 24-11-2010
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सारी दुनिया में नहीं है सच से भी सच्ची जगह
मैं यहीं पर ठीक हूं हां, जाओ तुम अच्छी जगह 16-07-2010
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धुंधली-धुंधली सूरतें हैं, चीख़ती कठपुतलियां
इस घिनौनी शक्ल को मैं हाय! कैसे दूं ज़ुबां 26-03-2011
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बिके हुए लोग छाती तान के चले
नासमझ थे हम कि ज़िंदा मान के चले 20-08-2011
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इक मैं हूं और इक तुम हो
अच्छे लोग बचे हैं दो
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चेहरों जैसे लगे मुखौटे
बंदर कपड़े पहन के लौटे 20-08-2011
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अपनी हिम्मत के कुछ तो मानी कर 27-04-2011
बेईमानों से बेईमानी कर

पहले बच्चों को बच्चा रहने दे 02-05-2011
क़ौम के नाम फिर जवानी कर

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अपने-अपने अंधियारों में, कैसा पेचो-ख़म लगता था
वो मुझको ज़ालिम लगता था उसको मैं ज़ालिम लगता था 24-05-2011
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मेरे तो हाल रहते थे बहुत ज़्यादा ही संजीदा
मुझे पहली हंसी छूटी, मिले जब लोग संजीदा 29-05-2011
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चालाक़ियों की उम्र भले हो हज़ार साल
बारीक़ियां कभी-कभी कर जातीं हैं कमाल 29-05-2011
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तुम्ही बताओ इसे किसकी मैं कमी समझूं
वो चाहते हैं बिजूके को आदमी समझूं

भरम का धुंआं जिसे ख़ुद उन्हींने छोड़ा था
उसे मैं कैसे उनकी आंख की नमी समझूं 11-10-2011
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तमाशा ख़त्म होने जा रहा है
कि जोकर खोपड़ी खुजला रहा है

मज़ा लेने की आदत डर गयी है
मज़ा अब पास आता जा रहा है 20-12-2011
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जिस दिन सारा खेल सामने आएगा
क्या खेलेगा! तुझपर क्या रह जाएगा 21-02-2011
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वो जो मुझको सुधारने आए
मिरा ज़मीर मारने आए

हाए! रोशन-दिमाग़, मुश्क़िल में
तीरग़ी को पुकारने आए 12-01-2011
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मैं तो गूंगा था निरा बचपन से
सच ने मुझको ज़ुबान बख़्शी है 12-01-2011
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रात को दे दी ख़ुशी इक दोस्त ने
सुबह को इक दोस्त आकर ले गया 15-01-2011
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राम के नाम हराम की तोड़ी छी छी छी
लाश पे बैठके खाई कचौड़ी छी छी छी 22-07-2011
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दीदी-दीदी, भैया-भैया करते हैं
अंदर जाकर ता ता थैया करते हैं 22-07-2011
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तुम मुझको पागल कहते हो! कह लो कह लो
जब तक सपनों में रहते हो, रह लो रह लो 23-07-2011
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वो रोता था तो उसकी आंख चाकू-सी चमकती थी
मैं हंसता था तो मेरी आंख से आंसू निकलते थे

वो कैसा दौर, कितनी उम्र, सब छोड़ो कि ये जानो
हमारा अपना ढब था, अपनी धज थी, अपने रस्ते थे 08-08-2011
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तुम तो कहते थे कि चोरों की निकालो आंखें
और ख़ुद पकड़े गए हो तो चुरा लो आंखें ! 27-06-2011
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रात का हौवा दिखा कर ऐसी मत तुम सहर दो-
चींटियों को आटा दो और आदमी को ज़हर दो!!









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तुमपे तो ज़िन्दगी के सभी राहो-दर हैं बंद
हम ही दीवाने होंगे क्योंकि हम हैं अक्लमंद  05-07-2001
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हंगामा जब चोर करे है    25-01-2011
बासी साजिश बोर करे है

बात करे ताक़तवर जैसी   31-01-2011
हरकत क्यूं कमज़ोर करे है

ताज़ा करवट इधर को ली है  31-01-2011
देखो मुंह किस ओर करे है
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यार तू होगा मर्द का बच्चा
मैं तो अकसर रो लेता हूं  19-01-2011
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झूठों की बात झूठ से बच-बचके पूछिए
झूठों में दम है कितना, ज़रा सच से पूछिए 31-08-2010
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बूंद आंखों से धुंएं में गिर पड़ी
रोशनी अंधे कुंए में गिर पड़ी

आदमी मंज़िल बना खुद एक दिन
और मंज़िल रास्ते में गिर पड़ी
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फिर से ज़हरीली फज़ां में महक सी आने लगी
फिर खुदाओं के शहर में आया कोई आदमी

गोकि भगवानों के जंगल में बेचारा खो गया
फिर भी कहने को शहर में आदमी ही आदमी
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कुछ हरे-भरे पत्ते, लो, ठूंठ पे ज़िन्दा हैं
वो धर्म के मालिक हैं जो झूठ पे ज़िन्दा हैं

गर बड़ों का बौनापन जो देखना है तुमको
उस कूबड़ को देखो जो ऊँट पे ज़िन्दा है
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गर वो झुक-झुक के सलामी करता
शहर भर उसकी ग़ुलामी करता
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जितना तुम रोकोगे मुझको उतना ज़ोर लगाऊंगा
जिनका तुमको इल्म नही मैं उन रस्तों से आऊंगा

आग लगाने वाले सारे पानी-पानी हो लेंगे
अंगारों के बीच खड़ा मैं जब आंसू बरसाऊंगा
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करुण कथा की गायक थी
चुप्पी बहुत भयानक थी

सुख नालायक बेटे थे
दुख इक बेटी लायक थी

आसमान बंजर निकला
धरती तो फ़लदायक थी    14-01-2007
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एक हिन्दू मिला और एक मुसलमां निकला
हाय ये दिन कि कोई दोस्त न इंसा निकला
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मिले हमको खुशी तो हम बहुत नाशाद होते हैं
कि शायर अपनी बरबादी से ही आबाद होते हैं
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जो बात सिर्फ ख़ास दोस्तों से थी कही गई
वो ख़ास बात ख़ास दुश्मनों तलक चली गई
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ये क्या किया कि हिन्दू-मुसलमां सिखा दिया       01-05-2005
तुमने जवान बच्चों को बूढ़ा बना दिया
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कई बार सोचा मैंने कि लोगों जैसा हो जाऊँ 07-12-2005
लेकिन वही पुरानी मुश्किल, खुदको कैसे समझाऊँ

इंसां की तरह दिखते थे, फ़नकार बहुत थे
इंसानियत के गिरने के आसार बहुत थे       13-06-06
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मेरे बारे में इरादे उनके बिलकुल साफ़ थे
ख़ुदको गर मैं मार डालूं मेरे सौ खून माफ़ थे 13-06-06
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वो जो जीना मुझे सिखाता है
ख़ुदको चुपके से बेच आता है                13-06-06
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सितम वालों से बच-बचके, मददगारों से बच-बचके
वो जीवन काटता था इस कदर यारों से बच-बचके  23-06-06
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मैं व्यवस्था से लड़ा और सर पटक कर रह गया
वे व्यवस्था में लगे और आके सर पे चढ़ गए       22-08-06
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ऐ दोस्त मकड़ियों को भी संजीदगी से लो
दो पल भी ठहर जाएं तो बुन देती हैं जाले     27-08-06

मेरी दिलचस्पी न हिन्दू न मुसलमान में है
मैं हूँ इंसान अक़ीदा मेरा इंसान में है    19-12-2006
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पिन मारा तो पता चला
कितना कुछ था भरा हुआ                    11-01-2002

अंधियारे में झांका तो
मैं ही मैं था डरा हुआ

ख़ाली कैसे मैं होता
ख़ालीपन था भरा हुआ                  03-02-2007
*
घुसा व्यवस्था के अंदर तो भेद समझ में यह आया
जिसकी जितनी नीच सोच थी उतना उच्च वो कहलाया  24-02-2007
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एक तरफ़ ग़ज़लों का मेला
एक तरफ़ इक शेर अकेला
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-संजय ग्रोवर