13 अप्रैल 2011

या फ़ेसबुक! तेरा ही आसरा

रुढ़ अर्थों में जिसे चमत्कार कहते हैं, उसे मैं बिलकुल नहीं मानता। लेकिन पहले इंटरनेट फिर ब्लॉग और अब फ़ेसबुक, चमत्कार की नयी परिभाषा हैं। विज्ञान ने मानव स्वभाव को समझने और बदलने का इतना बड़ा ज़रिया इससे पहले शायद ही दिया हो। ख़ासकर  मौलिक और ईमानदार लोगों के लिए तो यह छोटे-मोटे ख़ज़ाने से कम नहीं। ब्लॉग ने जिस लोकतंत्र को झाड़-बुहार कर साफ़-सुथरा बनाया, फ़ेसबुक उसके चरित्र को ही उसका चेहरा बनाने की कोशिश कर रही है और कुछ हद तक सफ़ल हो रही है। कल तक जो नायक अपने-अपने क्षेत्रों में निर्विवाद और अपरिहार्य माने जाते थे, आज हम पा रहे हैं कि उनमें से कई या तो प्रायोजित थे या इसलिए थे कि विकल्प नहीं थे। विकल्प इसलिए नहीं थे कि उनके लिए रास्ते ही बहुत कम होते थे। ब्लॉग और फ़ेसबुक हमें लगातार नए चेहरों के साथ नए विचार दे रहे हैं। ये स्टार सिस्टम को तोड़ रहे हैं। चूंकि संख्या, पहुंच और उपलब्धता के आधार पर इलैक्ट्रिॉनिक मीडिया का वर्चस्व अभी भी अधिक है और लोग वहां से जुड़े लोगों के सामीप्य और उनसे मिलने वाले संभावित फ़ायदों के चलते भी उनसे ‘प्रभावित’ रहते हैं इसलिए फ़ेसबुक पर कई बार इलैक्ट्रिॉनिक मीडिया के लोगों को प्रतिक्रिया जल्दी और ज़्यादा मिलती है। मगर ज्यों-ज्यों इंटरनेट की पहुंच और उपलब्धता बढ़ेगी, यह स्थितियां भी ख़त्म हो जाएंगी। संपादकों और प्रकाशकों के नखरे भी संभवतः बहुत हद तक ढीले होंगे।
ब्लॉग के बारे में सोचते ही आश्चर्य, ख़ुशी, उत्तेजना, राहत, कौतुहल,जैसे कई भाव एक साथ मुझे घेर लेते हैं। व्यक्तिगत बात करुं तो मेरी समस्या यह रही कि संपर्क कम थे और मैं संपर्कों के आधार पर छपना भी नहीं चाहता था। यूं लगभग हर छोटे-बड़े पत्र-पत्रिका में रचना छपी मगर हर बार रचना भेजते हुए, नए लेखक की तरह नए सिरे से संघर्ष करना पड़ता था। कुछ इस तरह के तो कुछ व्यक्तिगत कारणों से लेखन छोड़ने का मन बना लिया था कि एक मित्र ने ब्लॉग बनाने की सलाह दी। ब्लॉग बनाया और मेरे लेखक का नवीनीकरण/पुनर्जन्म हो गया। मेरे जैसे स्वभाव के व्यक्ति के लिए तो यह कोई खज़ाना हाथ लग जाने जैसी बात थी। दूसरों की क़िताबों, पुराने विचारकों के उद्धरणों के हवाले से बात करना मुझे जमता नहीं था, मौलिक, पूर्वाग्रह मुक्त चिंतन मे हमेशा से रुचि थी। और मैंने पाया कि कुछ लोग उसे भी ख़ुले दिल से सुनने को तैयार हैं।
कौन-सा विषय होगा जिसपर ब्लॉगर न लिख रहे हों ! कच्चे-पक्के सभी तरह के लेखक हैं यहां और सभी तरह के पाठक। यहां दिल्ली, झुमरी तलैया और सिडनी के लेखक एक ही वक्त में, एक साथ बैठकर बहसिया सकते हैं। गृहणियां जो किन्हीं कारणों से बाहर नहीं निकल पातीं थीं, आज धड़ल्ले से अपनी बात कह रहीं हैं, कलाओं का प्रदर्शन कर रहीं हैं। अपनी रचना पर प्रतिक्रिया आपको तुरंत मिलती है। दूसरे की रचना पर आप तुरंत टिप्पणी दे सकते है। अपवादों को छोड़ दें तो विवादास्पद विषयों पर भी ज़्यादातर ब्लॉगर दूसरों की तीखी टिप्पणियों को अविकल प्रकाशित करते हैं। बहस करते वक्त आप, हाथ के हाथ, आंकड़े सर्च करके, अपनी बात के साथ रख सकते हैं। आपकी रचना आपके अलावा कोई ऐडिट नहीं कर सकता। कहां पहले प्रिंट मीडिया के संपादक छः छः महीने बाद आपकी प्रतिक्रिया काट-पीटकर छापा करते थे और आपके पास कुढ़कर रह जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता था। अब मज़ा यह कि इस सबके लिए आपको चाहिए बस एक अदद पी.सी., एक नेट कनेक्शन और थोड़ी-सी तकनीकी योग्यता। फिर सारी दुनिया आपकी पहुंच में है, बस आपको माध्यम ढूंढ निकालने हैं कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचा जाए।
ब्लॉग की कुछ कमियां फ़ेसबुक ने दूर कर दी हैं। ब्लॉग ऐग्रीगेटर समेत तमाम सुविधाओं के बावजूद लोगों को उलझन होती थी कि हज़ारों ब्लॉगों की हज़ारों पोस्टों में से कौन-सी पढ़ें कि बाद में वक्त और मूड ख़राब हुआ न लगे। फ़ेसबुक एक ही प्लेटफॉर्म पर एक ही वक्त में आपके सारे दोस्तों (और उनके भी दोस्तो, अगर वे चाहें) के स्टेटस उपलब्ध करा देती है। तरह-तरह के विकल्प हैं। अगर आप चाहते हैं कि आपके विचार फ़ेसबुक के सभी सदस्य देखें तो वह भी संभव है। आपके पास अपनी बात को नए तर्कों, नयी समझाइश और नए अंदाज़े-बयां के साथ कहने की क्षमता है तो विपरीत विचारों के लोग भी सुनने को तैयार हो जाते हैं। इस बात का ज़्यादा मतलब यहां नहीं है कि अपनी बात आपने दो पंक्तिओं में कही या दो पन्नों में। यहां लोग बहस करते हैं, धमकियां देते है, लड़ते हैं और कई बार फिर से दोस्त हो जाते हैं। यहां अपने ऐडीटर आप ख़ुद होते हैं इसलिए अपने ज़िम्मेदार भी ख़ुद ही होते हैं।
भ्रष्टाचार और तानाशाही के खि़लाफ़ अरब और भारत में चली लड़ाईयों में फ़ेसबुक की भूमिका ने भी उदासीन लोगों को झकझोरा है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि जैसी भूमिका फ़ेसबुक की अरब दुनिया की क्रांतियों में रही, भारत के मौजूदा आंदोलन मे नहीं है। यह पहली बार अरब में ही संभव हुआ कि लोगों ने लगभग बिना नायकों के ही सत्ता को खदेड़ दिया। जबकि भारत में रातों-रात नायक (रामदेव से अन्ना) बदल जाने के बावजूद जितनी भर भीड़ जुटी, इलैक्ट्रिॉनिक मीडिया के ज़रिए ही संभव था।
फिर भी यह इतना लोकतांत्रिक और प्रगतिशील माध्यम है कि फ़ेसबुक की जगह कब कौन-सी दूसरी साइट या विधा ले लेगी, कहना मुश्किल है।

-संजय ग्रोवर
9/12-04-2011