27 मई 2011

ईमानदार बाल मामाजी की बेईमान यादें-2

आखिरी बार तो मैं उनसे तब मिला था जब उनकी छोटी बेटी की शादी में उनके घर पहली बार गया। तब भी उनकी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी। लेकिन उससे पहले एक बार जब वे हाथरस आए तो काफ़ी ठीक-ठाक थे। मैं भी बड़ा हो चुका था और चीज़ों को समझने का अपना एक नज़रिया मुझमें विकसित हो रहा था। वे कुछ दिन मैंने उनके साथ एक दोस्त की तरह काटे और अच्छे काटे। मैंने पाया कि बाल मामाजी एक बहुत ईमानदार और आदर्शवादी व्यक्ति थे। ईमानदार होना ही उनकी ज़्यादातर मुसीबतों और तक़लीफ़ों की जड़ था। लेकिन आश्चर्य की बात मुझे यह लगी कि अब तक उनका जो ज़िक्र मैं सुनता आया था उसके केंद्र में उनकी ईमानदारी की बात कहीं होती ही नहीं थी। अब सोचता हूं कि क्या ईमानदारी उस वक्त भी कोई क़ाबिले-ज़िक्र उपलब्धि या मूल्य नहीं था ! बाद में जो कुछ अनुभव मुझे ख़ुद हुए, मैंने पाया कि सच्चाई वाक़ई बेहद कड़वी है।
बहरहाल, बाल मामाजी कुछ रुढ़ क़िस्म के आदर्शवादी ज़रुर थे। जैसे, वे कहते कि लड़के और लड़की का संबंध आग़ और पैट्रोल की तरह होता है। सहशिक्षा के वे खि़लाफ़ थे। मैं उस वक्त तक अन्य साहित्य के साथ रजनीश को भी पढ़ने लगा था। मेरी बाल मामाजी से ख़ासी बहस होती। गांधीजी उन्हें बहुत पसंद थे और उनकी आलोचना उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। उन्हें काका हाथरसी भी बहुत प्रिय थे। मुझे याद है जिस दिन वे काका से मिलकर आए, कितने प्रसन्न थे। इसपर भी मेरी उनसे बहस हो जाती। काका की किसी कविता की एक पंक्ति ‘रिश्वत पकड़ी जाए, छूट जा रिश्वत देकर’ उन्हें ख़ासी पसंद थी।
बाल मामाजी एक मुखर स्वभाव के व्यक्ति थे, संकोची कतई नहीं थे। घर पर आने वाले लोगों से वे स्वयं पहल करके बात करते थे। हां, जब उनकी बेरोज़गारी का ज़िक्र आता वे असहज हो जाते।
वे पक्के आस्तिक थे। नानाजी आर्यसमाजी थे और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। बाल मामाजी के आदर्श और आस्तिकता भी संभवतः वहीं से आए थे। किसी राजनीतिक दल, किसी वाद-विशेष, किसी समाज सेवी संस्था आदि-आदि से बाल मामाजी का कोई लेना-देना नहीं था।

उस दौरान पहली बार उन्होंने मुझे नौकरी छोड़ने का कारण बताया। बाल मामाजी मध्य प्रदेश में किसी ऐसी जगह सरकारी स्कूल में टीचर थे जहां भयानक अकाल पड़ता था। सरकारी मदद के तौर पर जो अनाज (जो कि शायद निहायत ही सस्ती सी कोई चीज़ होती थी) और पैसे आते थे, उनका वितरण स्कूलों के द्वारा भी होता था। बाल मामाजी ने बताया कि वहां भारी घपलेबाज़ी होती थी। ईमानदारी और आदर्शों के मारे बाल मामाजी से यह बर्दाश्त नहीं होता था। वे अकसर विरोध करते और शायद शिकायत भी करते थे। अंतत नतीजा वही हुआ कि बाल मामाजी को तरह-तरह से परेशान किया जाने लगा। विस्तार से तो नहीं पता, पर कुछ ऐसा हुआ कि वे बहुत डर गए और गए और नौकरी छोड़कर चले आए।
ख़ैर, यह सब बताकर, कुछ दिन और रहकर बाल मामाजी चले गए। फिर एक दिन ख़बर आयी कि बाल मामाजी ने आत्म-हत्या कर ली है। अगर मैं कहूं कि यह सुनकर मुझे दुख हुआ या मैं रोता रहा तो यह झूठ होगा। जैसी कष्टपूर्ण ज़िंदगी उनकी थी, उसमें उनके चले जाने में ही उनके और दूसरों के लिए राहत दिखाई पड़ती थी।
मगर कुछ सवाल वे छोड़ गए। जिनमें सबसे बड़ा सवाल मेरे लिए यह है कि क्या सीज़ाफ्रीनिया के सारे रोगी एक जैसे होते हैं और सबको एक ही नज़रिए से देखा जाना चाहिए ? मुझे नहीं याद आता कि कभी किसीने मुझे यह बताया हो कि बाल मामाजी बचपन से ही ऐसे थे। वे बात-बात पर शक किया करते थे या अपने विचारों को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाते थे। मेरा मानना है कि हमें आम आदमी और एक ईमानदार आदमी के सीज़ोफ्रीनिया को एक ही निगाह से नहीं देखना चाहिए। जिस आदमी ने भी कभी अकेले दम भ्रष्टाचार से लड़ने या भीड़ के खि़लाफ़ खड़ा होने की कोशिश की है, वह समझ सकता है कि ऐसे में किस सामूहिक मानसिकता का सामना करना पड़ता है। हमारी हक़ीकत उम्मीद से कहीं ज़्यादा कड़वी है। यहां ईमानदार आदमी को पहले उपहास, दया और अपमान का पात्र बनाया जाता है, उसके बाद उससे तरह-तरह के सवाल पूछे जाते हैं। आप ईमानदारी की सिर्फ़ बातें करें, हर कोई आपसे ख़ुश रहेगा। मगर जैसे ही आप व्यवहारिक रुप से ईमानदारी पर उतरेंगे, वे लोग भी आपसे कतराने लगेंगे जिन्होंने बचपन से आपको आदर्श सिखाएं हैं। संगठित बेईमान आपको कटघरे में खड़ा कर देंगे। हांलांकि बाल मामाजी के साथ ऐसा नहीं था। नानाजी और नानीजी उनके प्रति नरम रवैय्या रखते थे। मगर मुश्क़िल शायद यह भी थी कि गांधीजी से प्रभावित नानाजी ने उन्हें आदर्श तो दे दिए थे मगर उन आदर्शों को पालने के लिए जो साहस चाहिए था, वह कहीं छूट गया था। मुश्क़िल यह भी थी कि बाल मामाजी सीघे, सरल और कुछ हद तक सपाट आदर्शवादी थे, रणनीतियां उन्हें नहीं आती थीं और इसमें शायद उनका विश्वास भी नहीं था। जबकि बेईमान व्यक्तियों/माफ़ियाओं की मानसिकता ऐसी होती है कि उन्हें अगर यह मालूम हो जाए कि यह आदमी मानसिक रोगी है तो वे इसका भी पूरा लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। वे इतने संगठित, मनोविकृत, क्रूर और बदनीयत होते हैं कि ठीक-ठाक आदमी को भी पागल कर देने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में एक अकेले पड़ गए ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति को समझने और उसकी मदद करने की बजाय सारा दोष उसके सीजोफ्रीनिया पर डालकर मामले को बिलकुल एकतरफ़ा बना देना क्या क्रूरता और नासमझी नहीं है !? क्या यह सीधे-सीधे बेईमान पक्ष को बढ़ावा या खुली छूट देना नहीं है ? 
दूसरा सवाल यह है कि बाल मामाजी अगर अपनी ईमानदारी के चलते बाहर ऐडजस्ट नहीं कर सकते थे तो क्या उन्हें घर के काम नहीं दिए जा सकते थे ? उन्हें मेहनत वाला कोई काम करने में ऐतराज़ नहीं था। आखि़र मर्द का बाहर जाकर 9 टू 5 नौकरी करना या 10 टू 10 व्यवसाय करना इतना ज़रुरी क्यों है ? यह कोई कुदरत की बनाई व्यवस्था तो है नहीं, इंसान ने ही बनाई है। तो फ़िर किसी इंसान की भलाई के लिए इसे तोड़ा या बदला क्यों नहीं जा सकता ? स्त्रियां भी तो आज घर से बाहर निकलकर काम कर रहीं हैं। ऐसा हमेशा से तो नहीं था।
तीसरा, जो मां-बाप अपने आदर्शवादी बच्चों का साथ नहीं दे सकते वे उन्हें आदर्श सिखाते ही क्यों हैं ?
ये सवाल जितने दूसरों के लिए हैं, उतने ही मेरे लिए भी सोचने के हैं।
आज अगर बाल मामाजी होते तो कोई वजह नहीं थी कि वह अन्ना हज़ारे के साथ जंतर-मंतर पर जाकर न बैठ जाते। वे एक बच्चे जैसे भोलेपन के साथ श्रद्धा किया करते थे।
आज जब भ्रष्टाचार-विरोध और ईमानदारी के नारों की धूम है, क्या दुनिया में ऐसा भी कोई व्यक्ति होगा जो बाल मामाजी को पागल नहीं बल्कि एक ईमानदार शख़्स के तौर पर याद करता होगा ?

-संजय ग्रोवर

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2 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्रियां भी तो आज घर से बाहर निकलकर काम कर रहीं हैं। ऐसा हमेशा से तो नहीं था।
    तीसरा, जो मां-बाप अपने आदर्शवादी बच्चों का साथ नहीं दे सकते वे उन्हें आदर्श सिखाते ही क्यों हैं ?
    ये सवाल जितने दूसरों के लिए हैं, उतने ही मेरे लिए भी सोचने के हैं।
    आज अगर बाल मामाजी होते तो कोई वजह नहीं थी कि वह अन्ना हज़ारे के साथ जंतर-मंतर पर जाकर न बैठ जाते। वे एक बच्चे जैसे भोलेपन के साथ श्रद्धा किया करते थे।
    आज जब भ्रष्टाचार-विरोध और ईमानदारी के नारों की धूम है, क्या दुनिया में ऐसा भी कोई व्यक्ति होगा जो बाल मामाजी को पागल नहीं बल्कि एक ईमानदार शख़्स के तौर पर याद करता होगा ?
    इमानदार होना मासूम होना...बस गुनाह है इस दुनिया में.......
    ईमानदारी हमें पागल बना देती है...और ये सवाल...जवाब कोंन देगा ,...
    कोई नहीं
    देगा भी कोई जवाब तो बस संत टाइप का कोई प्रवचन.....

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  2. घूमते-घूमते यहाँ आई और आप के इस काम को देख कर अच्छा लगा। बहुत सी डायरियाँ हैं, सब में झाँकने में समय लगेगा पर एक अच्छे ब्लाग का पता चला..
    नेट पर ऐसी जगह बनाने के लिये धन्यवाद और बधाई!!

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